देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को शब्दों में बांधना कठिन है। बावजूद इसके अगर कोई ऐसा करने की जुर्रत भी करे तो ज्यादा से ज्यादा क्या लिखेगा !! सादगी, समझदारी, काबिलियत, लगन, हौसला और जज्बा , ये चंद अल्फाज होंगे जो शास्त्री जी को अपने में समेटने की कोशिश करेंगे पर उनकी यह कोशिश बेमानी होगी।
भारतीय राजनीतिक परंपरा में सादगी की बात जब भी होगी शास्त्री जी शायद पहले पायदान पर होंगे। एक किस्सा है। तब शास्त्री जी देश के गृह मंत्री थे। उस समय के मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर के साथ वे कहीं से गाड़ी में बैठ कर आ रहे थे। एक रेलवे फाटक पर गाड़ी रुक गई। शास्त्री जी ने नैयर से पूछा कि जब तक फाटक बंद है क्यों न जूस पी लिया जाए। इस पर नैयर साहब कुछ बोलते तब तक शास्त्री जी गाड़ी से उतर गए और वे खुद जूस ले आए ।भारतीय राजनेताओं से जुड़े ऐसे किस्से बहुत कम ही मिलते हैं। पर भारत की यही तो खूबसूरती है।
एक बार शास्त्री जी से कुछ लोग बिहार से मिलने आए थे। उस दिन शास्त्री जी को किसी सम्मेलन में भाग लेना था। जिसके वजह से उन्हें विलंब हो गई। तब तक वे लोग इंतजार करके वापस चले गए थे। शास्त्री जी जब सम्मेलन से लौटे तो उन्होंने अपने कर्मचारियों से पूछा कि वे लोग कहां गए तो उन्हें बताया गया कि वे लोग इंतजार करने के बाद वापस चले गए हैं। तब शास्त्री जी उनको लेने खुद बस डिपो तक गए थे और उनसे अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगी थी । कुछ ऐसी ही बातें थी जो शास्त्री जी को बाकी नेताओं से अलहदा बनाती थीं।
शास्त्री जी में समझदारी इतनी थी कि वे चीन से रिश्ते को लेकर किसी तरह के मुगालते में नहीं थे। उन्होंने पहले ही कहा था कि चीन एक न एक दिन धोखा देगा और भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस बात को अगर जल्दी समझ जाएं तो भारत के लिए यह अच्छा होगा।
हमेशा देश की जनता द्वारा पसंद किए जाने वाले शास्त्री जी ताशकंद समझौते के बाद से लोगों और अपने परिवार के नजर में खटक गए थे। लेकिन जब तक इस समझौते पर बात होती, शास्त्री जी इस दुनिया से रुखसत हो गए।
1965 में भारत की सेना ने पाकिस्तान के ऑपरेशन जिब्राल्टर को फेल कर दिया था। भारतीय सेना पाकिस्तान के अंदर तक घुस गई थी। लेकिन चीन पर्दे के पीछे से पाकिस्तान की मदद कर रहा था। वैश्विक स्तर पर रूस और अमेरिका कतई नहीं चाहते थे कि चीन का दबदबा एशिया में बढ़े। इसलिए वैश्विक स्तर पर भारत पाकिस्तान की लड़ाई को खत्म करवाने की कोशिश होने लगी ।पाकिस्तान ने रूस की मदद से भारत को ताशकंद में समझौते के लिए बुलाया । 4 जनवरी 1966 को शास्त्री जी ताशकंद पहुंचे और 10 जनवरी 1966 को उन्होंने तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति आयूब खान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किया। इस समझौते के मुताबिक भारत को पाकिस्तान की सारी सीमाएं, जो भारत ने जंग में जीती थी वापस करनी थीं । यानी सीमाओं के लिहाज से दोनों देशों के बीच जंग से पहले वाली स्थिति में लौटने की सहमति बनी।
आखिरकार शास्त्री जी ने क्यों ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर किया! क्या शास्त्री जी पर हस्ताक्षर करने के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय दबाव था ! इन सब सवालों का जवाब मिल पाता तब तक 11 जनवरी 1966 की सुबह एक बेहद दुखद खबर लेकर आई। उस दिन रात्रि में 1:30 बजे ही शास्त्री जी इस दुनिया से रुखसत हो गए । उनकी मौत किस प्रकार से हुई यह भी संदेहास्पद है । जब उनका मृतक शरीर भारत लौटा तो नीला पड़ चुका था और रूस तथा भारत किसी भी देश ने उनके बॉडी की पोस्टमार्टम नहीं कराई। सबसे आश्चर्य की बात कि भारत सरकार के पास उनके मौत से जुड़ी एक आध दस्तावेज को छोड़कर कोई जानकारी नहीं है।