उत्तराखंड (Uttrakhand) के अधिकतर लोक पर्व (Festivals) प्रकृति, कृषि और पशुधन के करीब हैं, इसी तरह प्रकृति और कृषि को जोड़ने वाला पर्व हरेला और घी संक्रांति को पिछले माहों में मनाया जा चुका है। पशुधन की सलामती और पशुओं के प्रति मानव के नैतिक मूल्यों को दर्शाता हुआ पर्व है खतड़वा, जो भादो माह की समाप्ति के दिन मनाया जाता है। इसी के साथ खतड़वा त्यौहार (Khatadwa Festival) इस बात का भी सूचक है कि अब वर्षा ऋतु खत्म होकर शरद ऋतु शुरू हो रही है।
देखा जाए तो पशुधन को समर्पित और पशुओं के स्वास्थ्य की सलामती के लिए किया जाने वाला यह इकलौता पर्व है, जिसे बचाना और सहेज कर रखना बहुत जरूरी हो जाता है। खतड़वा के लिए यह भी कहा जाता है कि इस दिन के बाद जाड़ा घर की देहरी पर आ जाता है और शरद ऋतु का प्रारंभ हो जाता है। इसके बाद पशुओं को हरी घास मिलना दुर्लभ हो जाता है, क्योंकि इस मौसम में घास सूखने लगती है और हरी घास का अभाव होने लगता है।
क्या है तरीका
खतड़वा बनाने के लिए सबसे पहले पशुओं का गोठ (गौशाला) को अच्छी तरह साफ किया जाता है। जमीन से भी पूरी तरह सफाई की जाती है और जाले वगैरह भी अच्छे से साफ किए जाते हैं। फिर पशुओं को अच्छे से नहलाया धुलाया जाता है और तिलक लगाकर उनके गौशाला में हरी नर्म घास बिछाई जाती है। खतड़वा के दिन पशुओं को खाने के लिए भी हरी घास दी जाती है।
शाम को बच्चे एक-एक मशाल लेकर गाय के गोठ (गौशाला) में जाते हैं और चारों तरफ उस मशाल को घुमा कर पशुओं की व्याधि को दूर करने की प्रार्थना करते हैं। उसके बाद सभी बच्चे और युवा मशाल लेकर गांव की सीमा पर या किसी ऊंचे स्थान पर घास फूस के ढेर में मशाल से आग लगा देते हैं और पशुओं की बीमारी को दूर करने का की प्रार्थना करते हैं। खतड़वा के दिन प्रसाद के रूप में सभी को ककड़ी दी जाती है और गाय बैलों को भी ककड़ी खिलाई जाती है।