अमृता प्रीतम के जन्मदिन पर उनकी कुछ खास कविताएं

अमृता प्रीतम (Amrita Pritam) हिंदी उर्दू और पंजाबी की मशहूर कवियत्री लेखिका और उपन्यासकार रही है। उन्होंने 100 से ज्यादा किताबें लिखी और कई किताबों का अनुवाद भी हुआ। अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 को पाकिस्तान के गुजरावाला में हुआ। उन्हें 2005 में भारत का दूसरा सर्वोच्च पुरस्कार पद्म विभूषण से भी नवाजा गया। 1981 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला। उन्होंने अपनी आत्मकथा को रसीदी टिकट Raseedi Ticket नाम से लिखा है। 1986 में अमृता को राज्यसभा में भी मनोनीत किया गया था। 2005 में बीमारी के बाद उनका निधन हो गया।

उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताएं-

 

रोजी

नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है

सपने — जैसे कई भट्टियाँ हैं
हर भट्टी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है

तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे कोई हथेली पर
एक वक़्त की रोजी रख दे।

जो ख़ाली हँडिया भरता है
राँध-पकाकर अन्न परसकर
वही हाँडी उलटा रखता है

बची आँच पर हाथ सेकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और खुदा का शुक्र मनाता है।

रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुआँ इस उम्मीद पर निकलता है

जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है…

पहचान

तुम मिले
तो कई जन्म
मेरी नब्ज़ में धड़के
तो मेरी साँसों ने तुम्हारी साँसों का घूँट पिया
तब मस्तक में कई काल पलट गए–

एक गुफा हुआ करती थी
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजुओं में लेकर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह क़सम!
यही महक थी जो उसके होठों से आई थी–
यह कैसी माया कैसी लीला
कि शायद तुम ही कभी वह योगी थे
या वही योगी है–
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है
और वही मैं हूँ… और वही महक है…

 

रात ऊँघ रही है

रात ऊँघ रही है…
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।

चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।

 

सिगरेट

यह आग की बात है
तूने यह बात सुनाई है
यह ज़िंदगी की वो ही सिगरेट है
जो तूने कभी सुलगाई थी

चिंगारी तूने दे थी
यह दिल सदा जलता रहा
वक़्त कलम पकड़ कर
कोई हिसाब लिखता रहा

चौदह मिनिट हुए हैं
इसका ख़ाता देखो
चौदह साल ही हैं
इस कलम से पूछो

मेरे इस जिस्म में
तेरा साँस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा

उमर की सिगरेट जल गयी
मेरे इश्के की महक
कुछ तेरी सान्सों में
कुछ हवा में मिल गयी,

देखो यह आखरी टुकड़ा है
ऊँगलीयों में से छोड़ दो
कही मेरे इश्कुए की आँच
तुम्हारी ऊँगली ना छू ले

ज़िंदगी का अब गम नही
इस आग को संभाल ले
तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ
अब और सिगरेट जला ले !!

– अमृता प्रीतम

 

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