राजगुरु: जंग-ए-आजादी का एक नायक

इतिहास हर किसी के साथ न्याय नहीं करता है। इतिहास के गर्भ से उपजी कहानियां और उन पर होने वाली चर्चाएं, किसी की आभा इतनी बिखेर देती हैं है कि उसके सितारे सदियों तक जगमगाते रहते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ इतिहास कुछ लोगों को गुमनामी के अंधेरे कोठरी में भी धकेल देता है जहां से उन व्यक्तियों के नाम और थोड़ी चर्चा के रूप में बस एक टिमटिमाती रोशनी भर ही नज़र आती है। राजगुरु भी उन्हीं में से एक हैं। शहीद भगत सिंह के बराबर फांसी की सजा पाने वाले राजगुरु के लिए वर्तमान पीढ़ी के पास उनके नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

24 अगस्त 1908 को महाराष्ट्र के पुणे के करीब खेड़ में जब हरिनारायण और पर्वती बाई के यहाँ एक लड़का पैदा हुआ तो कौन जानता था कि यह बालक एक दिन भारत के आजादी के नींव में अपने शरीर को न्यौछावर कर देगा।

राजगुरु सावन के सोमवार को पैदा हुए थे इसीलिए उनका नाम ‘शिव’ से सम्बंधित रखा गया था। उनका पूरा नाम शिवराम राजगुरु था पर राजगुरु की माता उन्हें ‘बापूसाहेब’ कहकर बुलाती थीं। इसके पीछे वज़ह यह थी कि किसी संन्यासी ने राजगुरु को देखकर यह भविष्यवाणी की थी कि वे एक ना एक दिन महान कामों को अंजाम देंगे।

सन्यासी ने कहा था कि राजगुरु का जन्म सामान्य कार्यों के लिए नहीं हुआ है। परन्तु नसीब का कठोर प्रहार देखिए की राजगुरु अपने माता के मुंह से अपने लिए ऐसी पुकार ज़्यादा दिन नहीं सुन सके। वे मात्र 6 वर्ष के ही थे जब उनकी माता का देहांत हो गया।

राजगुरु, बाल गंगाधर तिलक से काफ़ी प्रभावित थे। वे बचपन में तिलक के संपर्क में आ गए थे। तिलक ने उनके साहस, संकल्प और महत्त्वाकांक्षा को उत्साहित किया जो ज़िन्दगी भर राजगुरु के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहा।

राजगुरु अंग्रेज़ी शिक्षा में कमजोर थे जिसकी वज़ह से उन्हें घर में अपने बड़े भाई से काफ़ी भर्त्सना सहनी पड़ी। राजगुरु को यह बात नागवार गुजरती थी। अपने भाई के तानों से आजीज आ कर मात्र 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर से निर्वासन का रास्ता अख्तियार कर लिया। कई पड़ावों के बाद राजगुरु काशी पहुँचे तथा उन्होंने संस्कृत में शिक्षा ली।

पहले गाँव से प्राथमिक शिक्षा फिर काशी से संस्कृत में शिक्षा हासिल करने के बाद वे 1924 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन क्रांतिकारी संगठन में शामिल हो गए। भगत सिंह के किताबी ज्ञान के साथ राजगुरु वैदिक ग्रंथ और संस्कृत भाषा के अपने ज्ञान से मुकाबला करते थे और सबको मंत्रमुग्ध कर देते थे।

साइमन कमीशन का विरोध कर रहे लाजपत राय को अंग्रेजों ने लाठी से चोटिल कर दिया था जिससे उनकी मृत्यु हो गई। इसका बदला लेने के लिए राजगुरु ने “सांडर्स हत्याकांड” में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की थी। सांडर्स की हत्या के बाद राजगुरु अमरावती, नागपुर जैसे कई इलाकों में छुपते रहे,  इसी दौरान नागपुर में उनके छुपने की व्यवस्था राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के एक कार्यकर्ता के घर डॉ. केबी हेडगेवार ने करवाई,  वह उनसे मिले भी थे।

राजगुरु की बायोग्राफी ‘राजगुरु द इन्विसिविल रिवोल्यूशनरी’ के लेखक अनिल वर्मा ने इसका उल्लेख किताब में किया है। आखिरकार 30 सितंबर, 1929 को जब राजगुरु नागपुर से पुणे जा रहे थे तो उनको अंग्रेजों ने पकड़ लिया। उनको सैंडर्स की हत्या का दोषी क़रार दिया गया और 23 मार्च, 1931 को सुखदेव एवं भगत सिंह के साथ उनको फांसी की सजा दी गई।

 

कुमार ऋषिकेश

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *