स्वतंत्रता दिवस का देशप्रेम वाला माहौल हो और कहीं किसी मंच पर भाषण हो रहा हो .. उस भाषण के बीच में वक्ता किसी कवि की देश को समर्पित किसी कविता की पंक्तियां बोल दे तो उस भाषा में चार चांद लग जाते हैं, और सीधा सुनने वाले के दिल तक बात जाती है। ये हमने स्कूलों से लेकर लाल किले के मंच तक देखा है, जब वक्ता अपने भाषणों को प्रभावी बनाने के लिए उसमें देशप्रेम से ओतप्रोत कविता की पंक्तियां सुनाते हैं।
देखिए इसी तरह की कुछ देश प्रेम को समर्पित पंक्तियां…
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं
वो हृदय नहीं वो पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं
– गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!
– जयशंकर प्रसाद
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
– रामधारी सिंह दिनकर
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
– मैथिलीशरण गुप्त
दूध-दही की नदियां जिसके आँचल में कलकल करतीं
हीरा, पन्ना, माणिक से है पटी जहां की शुभ धरती
हल की नोंकें जिस धरती की मोती से मांगें भरतीं
उच्च हिमालय के शिखरों पर जिसकी ऊँची ध्वजा फहरती
– बालकवि वैरागी
मद्रासी मिट्टी को सौंपे राजस्थानी खून
बंगाली बगिया में रोपें पंजाबी मजमून
मथुरा की गलियों में गायें नरसैया के गीत
गुजराती वैभव में छेड़ें तुलसी का संगीत
नंदनवन सा बने कच्छ की खाड़ी का दलदल
भारत का नक्शा बदलेंगे आज नहीं तो कल
– किशोर काबरा
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमां
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है
– रामप्रसाद बिस्मिल
एकता के सूत्र में सारा बंधा संवर्ग हो
ईद होली या दिवाली हो कि पोंगल पर्व हो
इस धरा पर भी हमारा आशियां हो स्वर्ग
भारती के पूत हैं हम, हम सभी को गर्व हो
– किशन स्वरूप
नगाधिराज श्रृंग पर खड़ी हुई,
समुद्र की तरंग पर अड़ी हुई,
स्वदेश में सभी जगह गड़ी हुई
अटल ध्वजा हरी, सफेद केसरी।
न साम-दाम के समक्ष यह रुकी,
यह दंड-भेद के समक्ष यह झुकी,
सगर्व आज शत्रु-शीश पर ठुकी,
विजय ध्वजा हरी, सफ़ेद केसरी।
चलो उसे सलाम आज सब करें,
चलो उसे प्रणाम आज सब करें,
अजर सदा, इसे लिये हुए जिए,
अमर सदा, इसे लिये हुए मरे,
अजय ध्वजा हरी, सफ़ेद केसरी।
– हरिवंशराय बच्चन