मेरी कलम मेरे जज़्बात से इस कदर वाकिफ है कि मैं इश्क भी लिखूं तो इन्कलाब लिखा जाता है : भगत सिंह

मौत जिनकी माशूका थी, खुशदिली और रूमानियत जिनके रूह की खुराक थी, अंतः करण जिनका संभावनाओं और आकांक्षाओं से लबरेज था, जिंदगी जिनकी हर्ष – उन्माद की अठखेलियां से ओतप्रोत थी और मां भारती की सेवा ही जिनके जिंदगी का एकमात्र धर्म था। ऐसी भी एक शख्सियत ने भारत की धरा पर जन्म लिया था। नाम भगत सिंह, कद 5 फुट 10 इंच और रंग गोरा, कहने को तो यह सिर्फ एक व्यक्ति के रूप रेखा का वर्णन है लेकिन इन शब्दों ने अपने गर्भ में एक इतिहास दफन कर रखा है।

भगत सिंह केवल एक व्यक्ति का ही नाम नहीं है, यह नाम एक विचारधारा का है, यह नाम एक आदर्श का है ,यह नाम एक जीवन शैली की है, यह नाम एक युवा उन्माद का है, भगत सिंह अपने आप में एक इतिहास का नाम है।

 

अपने आप को नास्तिक कहने वाले भगत सिंह को विवेकानंद की जीवनी पढ़ने से कोई परहेज नहीं थी, वह अपने जेब में गीता का एक छोटा प्रारूप रखा करते थे। भारत के जंग- ए- आजादी की आग में अपने प्राणों की आहुति देने वाले भगत सिंह का जीवन रंगीनियत और रूमानियत से भरपूर था। उनकी उफनती जवानी ने, भले ही जिस का कालक्रम छोटा रहा हो, खुशियों के चांदनी तले अपने दिन बिताए थे ।उनके बारे में राजगुरु कहते थे कि – “एक हम हैं जिनको लड़कियां भाव तक नहीं देती हैं , एक 5 फिट 10 इंच का यह लड़का है जिसे लड़कियों से बचाते बचाते हमारा दम निकल जाता है।” कहा जाता है कि जब भगत सिंह नेशनल कॉलेज में पढ़ते थे तो उनको एक लड़की बहुत पसंद करती थी और उनकी वजह से उस लड़की ने क्रांतिकारी दल में भी शामिल होना स्वीकार किया था। भगत सिंह को रसगुल्ले खाने और फिल्म देखने का बड़ा ही शौक था। जब भी फुर्सत मिलता था तो वह राजगुरु और यशपाल के साथ अपने पसंदीदा अभिनेता चार्ली चैप्लिन की फिल्में देखने जाया करते थे। उनके इस शौक से चंद्रशेखर आजाद बड़ी नाराज रहते थे।

 

लेकिन इस तरह जिंदगी जीने और एक सामान्य आदमी की तरह मरने के लिए भगत सिंह जैसी शख्सियतें पैदा नहीं होती। वे पैदा होती हैं इतिहास बनाने के लिए। और भगत सिंह इतिहास बनाएंगे यह बात तो बहुत पहले ही तय हो चुकी थी। एक बार भगत सिंह के माता पिता ने अपने बेटे की भविष्य जानने की इच्छा से उनकी कुंडली एक पंडित को दिखाई थी। तब पंडित ने उनके माता-पिता से कहा था कि आगे चलकर इस बच्चे का खूब नाम होगा, यह बहुत शोहरत कमाएगा और इसके गले में एक सम्मानित चीज पहनाई जाएगी। उस समय भगत सिंह की माता को इस बात का अंदाजा बिल्कुल भी नहीं होगा कि उनके लाल के गले में जो सम्मानित चीज पहनाई जाएगी उसके लिए पूरे भारत की माएं उन्हें ना जाने कितनी दुआएं देंगी।

 

भगत सिंह ने पंजाब को जंगलीपन ,कुश्ती और जहालत से भरी हुई अंधियारी कोठरी से निकाल कर बुद्धिवाद के प्रकाश की तरफ मोड़ने की कोशिश की थी। उनका फैलाया यह प्रकाश ना सिर्फ पंजाब बल्कि भारत के दक्षिणी हिस्से तक भी पहुंच गया था। दक्षिण भारत में भी लोग भगत सिंह के नाम से बखूबी परिचित थे हालांकि वे लोग नहीं जानते थे कि ‘ सिंह ‘ भी कोई सरनेम होता है इसलिए वे अपने बच्चों का नाम ‘भगत सिंह अय्यर ‘ इत्यादि रख दिया करते थे।

 

5 फरवरी 1922 का दिन था और आग में धू-धू कर जल रहा था, एक पुलिस थाना । यह पुलिस थाना था यूपी के गोरखपुर स्थित चौरी चौरा में। यह, वो दौर था जब देश में असहयोग आंदोलन की बयार बह रही थी। भारतीयों द्वारा लगाई गई इस आगजनी में 22 पुलिस वाले जिंदा जल कर मर गए थे । इस हिंसा से महात्मा गांधी बहुत आहत हुए और उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस लेने का निर्णय ले लिया। गांधी के इस निर्णय के बाद उनके पदचिन्हों पर चल रहे भगत सिंह ने एक नया रास्ता अख्तियार कर लिया। उन्होंने गांधी की छत्रछाया से निकलने का फैसला किया। भगत सिंह का मानना था कि युवाओं को अपने तर्कों, अपने बुद्धि और अपने नजरिए से हालात समझने चाहिए। समाजवाद कहीं से भी जन्म ले सकती है और कोई भी समाजवाद का झंडा बुलंद कर सकता है। इसमें आयु, पैदाइश, परवरिश और पार्टी का कोई सरोकार नहीं है।

 

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर असेंबली हॉल में बम फेंका । कहने को तो वह बम असेंबली हॉल में फेंका गया था लेकिन एक नजरिए से देखा जाए तो वह बम गांधीवादी विचारधारा वाली राजनीति के ऊपर भी फेंका गया था। उस के माध्यम से भगतसिंह ने यह संदेश दिया था कि युवा अपने तरीके से भी सरकार के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं। यह भी कहा जाता है कि आजादी , गांधी की राजनैतिक जीत जरुर थी लेकिन भगत सिंह की फांसी उनकी नैतिक हार थी।

एक बात बहुत कम लोग जानते हैं कि असेंबली में बम फेंकने के साथ कुछ पर्चे फेंके गए थे। उन पर अंग्रेजों के लिए जो चेतावनी लिखी गई थी वह किसी बलराज (commander-in-chief) के नाम से लिखी गई थी। बलराज कौन था , इसका कोई सुराग नहीं मिलता । कहा जाता था कि भगत सिंह ही बलराज थे जो बीते कई दिनों से बलराज के नाम से लिखकर पर्चे बांटते थे।

 

भगत सिंह की मौत की कहानी सुनकर आज भी सबकी आंखें नम हो जाती हैं। हुआ यूं था कि उनको 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी। लेकिन उस समय लोगों में उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि वे अंग्रेजों के लिए आंख के कांटे बन गए थे । उस समय उनकी हैसियत भारत के जनमानस के बीच गांधी से भी ऊपर थी । आखिर हो भी क्यों ना , भारत माता का एक सच्च सपूत जो अंग्रेजों के आंखों में आंखें डालकर बात करता था, जिसने अपनी सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया और जिसने सच्चे दिल से आजादी चाही वो उस दिन दुनिया से रुखसत हो रहा था ।यह बात अंग्रेजों को फूटी आंख नहीं सुहा रही थी ।और उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में 1 दिन पहले यानी 23 मार्च 1931 को ही फांसी दे दी गई थी । उनकी लाश को काट कर जेल के पिछले दरवाजे से निकालकर अंग्रेजो ने सतलज के किनारे फेंक दिया था । उस समय सतलाज के किनारे आग ताप रहे भारतीयों को किसी तरह इस बात की भनक लगी कि भगत सिंह को फांसी हो गई है । फिर भारतीयों ने उनके लाश के टुकड़ों को जुटाया और उनका तर्पण किया गया ।

 

इस तरह अंग्रेजों ने एक विचारधारा को दफनाने की कोशिश की थी। लेकिन वे यह भूल गए थे कि आना जाना तो व्यक्तियों का लगा रहता है विचारधारा कभी मरती नहीं है।

भगत सिंह 28 सितंबर 1907 को पैदा हुए थे उसके बाद वे कभी मेरे नहीं , वे आज भी जिंदा हैं।

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