JL-50: ना ‘साइंस’ ना ‘फिक्शन’, बस वक़्त की बर्बादी

वेबसिरीज़- JL-50
OTT प्लेटफॉर्म- सोनीलिव
निर्देशक- शैलेन्द्र व्यास
कलाकार- अभय देओल, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा, रितिका आनंद, मृणाल सेन और राजेश शर्मा
रेटिंग- 2/5

बॉलीवुड ने अपने दर्शकों को साई-फाई के नाम पर हमेशा निराश ही किया है। याद हो तो आपने कृश-3 मे ‘मानवर’ देखें थे जो मार्वेल के X-Men वाले म्यूटेंट के सस्ते वर्जन थें। बाकी कहानी के बारे मे तो कुछ ना ही कहें तो बेहतर। ऐसे ही यह विषय हमेशा से ही बॉलीवुड के लिये यूटोपिया का यूनीकॉर्न ही बना रहा है जिसे आज तक हम देख नही पाये हैं।

खैर बात करते हैं ‘शैलेंद्र व्यास’ द्वारा निर्देशित सोनीलिव पर 4 सितम्बर से प्रेमियर हो रही नई साइंस-फिक्शन मिनी सिरीज़ JL-50 की।

कहानी

कलकत्ता मे एक जहाज AO-26 हाईजैक हो गया है। इसके छानबीन की जिम्मेदारी मिलती है CBI अफसर शांतनु(अभय देओल) और गौरांगो(राजेश शर्मा) को।

एक अन्य जहाज क्रैश हो गया है जो शायद पैसे की अत्यंत कमी के कारण vfx मे भी नही दिखता, हालाँकि उसकी परछाईं दिख जाती है। शांतनु और गौरांगो को पता चलता है कि ये जहाज जो क्रैश हुआ है वो हाईजैक हुआ AO-26 जहाज नही है।
तो आखिर ये कौन सा जहाज है जो रिकॉर्ड मे नही है। आखिरकार पता चलता है कि ये JL-50 है जो 35 साल पहले 1984 मे उड़ा था और अब 2019 मे क्रैश हुआ है। इसमे जीवित मिलते हैं प्लेन की पायलट बिहू घोष(रीतिका आनंद) और वैज्ञानिक ‘बिश्वजीत चंद्र मित्रा(पीयूष मिश्रा)’। एक यूनिवर्सिटी मे क्वांटम फिजिक्स के प्रोफेसर सुब्रतो दास(पंकज कपूर) खुलासा करते हैं कि यह टाईम ट्रैवल की घटना है और इसमे बांग्लादेशी आतंकियों का भी हाथ है। आगे कहानी मे कुछ नही है, सिवाय इसके कि कहानी को बस एक अंजाम तक पहुँचा देना है।
वैसे निराश होने की जरूरत नही है। खास आप ही के लिये इस सिरीज़ मे टाईम ट्रैवल भी है लेकिन यह बड़ा ही फिल्मी लगता है, बेहतर होता कि ये ना ही होता।

कहानी से इतर

इस सिरीज़ का हर पहलू कामचलाऊ है। एक अच्छे साइंस-फिक्शन के विषय को उठाकर लिखने वाले ‘शैलेन्द्र व्यास’ ने यह भी बता दिया कि इसे बरबाद कैसे करते हैं। सिरीज़ बंगाली बैकग्राउंड मे बनी है लेकिन इसका संगीत उस हद तक प्रभावित नही करता।

सिरीज़ 32-35 मिनट के चार एपिसोड्स मे है। 2007 मे बनी इस फीचर फ़िल्म को वेब-सिरीज़ के तौर पर क्यों रिलीज़ किया गया इसकी स्ट्रेटजी समझ से परे है। वैसे शुरु के लगभग 1:30 मिनट और आखिर के लगभग 3 मिनट क्रेडिट के तौर पर डाले गये हैं जो सिरीज़ की बोरियत और लम्बाई दोनो को ही थोड़ा कम करते हैं।

 बात ऐक्टिंग की

इस सिरीज़ मे अभय देओल के अतिरिक्त पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा, राजेश शर्मा और रितिका आनंद मुख्य रोल मे हैं। पंकज कपूर अपने किरदार मे जमे हैं। जबकि नेगेटिव शेड मे दिखे पीयूष मिश्रा ने ये सिरीज़ आखिर की ही क्यूँ ये समझ से परे है। अभय देओल ने हमेशा की तरह इस बार भी चेहरे पर सपाट भाव रखे हुए ऐक्टिंग के लिये ज्यादा मेहनत करना ठीक नही समझा। वैसे कहने को तो वो मुख्य इन्वेस्टीगेटिंग अफसर के किरदार मे हैं। राजेश शर्मा स्क्रीन पर कॉमिक किरदार मे थोड़े समय के लिये आते हैं लेकिन दुरुस्त आते हैं। हालाँकि उनका किरदार बढ़ाया भी जा सकता था।

और अन्त में

 

बॉलीवुड से कुछ एक्स्ट्रा-आर्डिनरी की उम्मीदें लगाने वाले अक्सर दिल तुड़वाकर ही बैठते हैं। यही हाल सोनीलिव की साइंस-फिक्शन मिनी सिरीज़ JL-50 का भी है जिसमे ‘साइंस’ के नाम पर बहकावे के लिये टाईम-ट्रैवल है और ‘फिक्शन’ के नाम पर पारिवारिक ड्रामा है (ऐक्चुअली वो भी नही है)। इसमे इतिहास का भी पुट है और प्राचीन भारतीय गौरव का भी। काश इस सिरीज़ को आधे मन से भी बना दिया गया होता। वैसे साइंस-फिक्शन भारतीय फ़िल्म इन्डस्ट्री के लिये हमेशा से ही एक जोखिम भरा विषय रहा है जिसे उठाने की जरूरत अन्य भारतीय निर्देशक-निर्माताओं की ही तरह शैलेंद्र-व्यास को भी नही थी।

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