उर्दू साहित्य में क्रांति करने वालों के जिक्र पर दो चार नाम याद आते हैं। कहा जाता है कलम ऐसी शमशीर है जिसका दिया ज़ख्म नासूर बन जाता है। कुछ ऐसा ही ज़ख्म दिया है इस्मत चुग़ताई (Ismat Chugtai) ने ज़माने की रूढ़ियों को। इस्मत चुग़ताई का जन्म 21 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में हुआ था। मंटो, कृष्ण चन्दर, राजेंदर सिंह का बेेदी के बाद उर्दू साहित्य की चौथी प्रमुख प्रतिनिधि लेखिका के रूप में इस्मत को बहुत मान सम्मान और प्रसिद्धि लिखी।
कहानी पर मुकदमे
अपने बेबाक लहजे, सच कहने की हिम्मत की वजह से “आपा” की कहानियों पे कई मुकदमे भी चले जिसमें एक कहानी पर लाहौर में अश्लीलता का मुकदमा चला। हम ज़माने में उस चीज़ को अश्लील कह देते हैं जिसको बर्दाश्त करने की कूबत हमारे अंदर ना हो। “लिहाफ” ऐसी ही एक कहानी थी। “लिहाफ” में सन 31 में समलैंगिकता की बात की गई जो उस वक़्त नाकाबिले बर्दाश्त थी। हालांकि मुक़दमा खारिज़ हो गया लेकिन आपा को जो प्रसिद्धि मिली वो बेइंतहा थी।
फेमिनिज्म की मिसाल थी आपा
आपा को इसलिए याद किया जाना चाहिए और इसलिए पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने नारीवाद को एक अलग दिशा दी। महिलाओं से जुड़े हर नए, पुराने मुद्दे पर उन्होंने लिखा और कई रूढ़िवादी विचारों पर उन्होंने चोट की। उनके प्रमुख उपन्यासों में “टेढ़ी लकीर, दिल की दुनिया, जिद्दी, मासूमा, जंगली कबूतर, अजीब आदमी” प्रमुख हैं और उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह में “चोटें, कलियां, छुईमुई, एक रात, शैतान” प्रसिद्ध हैं। इस्मत आपा की आत्मकथा का नाम ‘कागजी है पैरहन’ है।
फिल्मों में भी लिखा
आपा ने फिल्मों के लिए भी खूब लिखा है। बंटवारे का दंश झेलते हुयर अपने जन्मस्थान से दूर होने का दुख यदा कदा इनके लेखों में दिख जाता है। आपा अध्यापन और स्वतंत्र लेखन में सक्रिय थी। उर्दू साहित्य में योगदान के लिए उन्हें अनेक पुरस्कार मिले, जिसमें 1976 का पद्मश्री और एक साहित्य अकादमी पुरस्कार भी है। 24 अक्टूबर 1991 को मुम्बई में इस्मत आपा का निधन हो गया। आपा की मौत के बाद वसीयत पढ़ा गया तो उसमें मुम्बई में अंत्येष्टि हो ऐसा आपा की तमन्ना थी।
आपा आज नहीं हैं हमारे बीच लेकिन अपनी कहानियों से आज भी वो ज़िंदा हैं, ये रहे उनके कुछ खास विचार –
अगर औरत आज़ाद नहीं हो सकती तो मर्द कभी आज़ाद नहीं हो सकता