व्यंग्य को साहित्य में विशेष पहचान दिलाने वाले व्यंग्यकार हैं हरिशंकर परसाई

22 अगस्त 1924 को मध्यप्रदेश के जबलपुर ( Jabalpur) में जन्मे हरिशंकर परसाई (Harishankar Parsai) का कद हिंदी साहित्य में काफी बड़ा है। वह इसलिए कि उनके जैसा व्यंग्यकार (Satirist) अभी तक कोई दूसरा नहीं हुआ। 1947 में पहली बार उनके व्यंग्य प्रहरी पत्रिका में छपे थे और धीरे-धीरे वो पूरे देश में जाने जाने लगे। हरिशंकर परसाई के बाद व्यंग्य विधा मनोरंजन से बाहर निकलकर साहित्य में विशेष स्थान पाने लगी और सरकार के विरोध में इसका अच्छा इस्तेमाल होने लगा।

हरिशंकर परसाई के मुख्य कहानी संग्रह हैं- “हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव”। हरिशंकर परसाई ने “रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल” उपन्यास भी लिखे। परसाई को उनके लेख ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में परसाई जी का निधन हो गया।

परसाई के कुछ व्यंग्य जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं –

 

1- “समस्याओं को इस देश में झाड़-फूँक, टोना-टोटका से हल किया जाता है. सांप्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया – हिंदू-मुस्लिम, भाई-भाई”

2 “चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं. लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं. देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं”

3 “मध्य वर्ग का व्यक्ति एक अजीब जीव होता है. एक ओर इसमें उच्च वर्ग की आकांक्षा और दूसरी तरफ निम्नवर्ग की दीनता होती है. अहंकार और दीनता से मिलकर बना हुआ उसका व्यक्तित्व बड़ा विचित्र होता है. बड़े साहब के सामने दुम हिलाता है और चपरासी के सामने शेर बन जाता है”

4- “अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये। जरूरत पड़ी तब फैलाकर बैठ गये नहीं तो मोड़कर कोने से टिका दिया”

5- “अर्थशास्त्र का जब धर्म शास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तब गौरक्षा आंदोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं”

6- “सरकार कहती है कि हमने चूहे पकड़ने के लिये चूहेदानियां रखी हैं. एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की. उसमें घुसने के छेद से बड़ा छेद पीछे से निकलने के लिये है। चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है”

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