यूं तो दुनिया उन्हें पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री के रुप में जानती है, पद्मविभूषण से सम्मानित एक लेखिका, जिन्होंने 100 से ज्यादा किताबें लिखीं, जिसमें उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शामिल है। बंटवारे के दर्द को उन्होंने शब्दों में बांधकर पाठकों के सामने कुछ ऐसे रखा कि लोगों के रोंगटे सिहर गए और शब्दों के आगे आंखें बरबस ही बरसने लगीं। पर इन सबसे अलग जानते हैं वो क्या थीं, वो थीं अपने इमरोज़ की अमृता, जिन्हें प्यार से वे इमुवा बुलाया करती थीं। अमृता, इमरोज़ और उनके इश्क की दास्तान जितनी बार भी लिखी जाए, जितनी बार भी पढ़ी जाए, हर बार कुछ अलग सी लगती है, हर बार कुछ नया सा लगता है।
इनके अहसास, शब्द और पेंटिंग से सजी दुनिया में चाय ने भी अहम किरदार निभाया है। पेज के कवर को लेकर हुई मुलाकात पहले जान पहचान और फिर एक ऐसी अनजान सी डोर में बदल गई कि दोनों की पहचान एक सी हो गई।
अमृता प्रीतम को रात को देर तक लिखने की आदत थी। ऐसे में भला चाय की तलब किसे नहीं लगेगी। पर लिखने के क्रम को तोड़कर वो चाय बनाने नहीं उठती थीं। इमरोज़ को जब इस बात का अहसास हुआ तो वे बिना कुछ बोले चुपचाप रात को एक बजे चाय बनाकर लाते और अमृता की मेज़ पर रख देते। वो लिखने में इतनी लीन होती कि नज़र उठाकर देखती भी नहीं कि इमरोज़ उनके लिए चाय लेकर आए हैं। अमृता प्रीतम की लेखनी और इमरोज़ की चाय के कप का सिलसिला सालों साल चलता रहा। इसी सिलसिले के दौरान अमृता प्रीतम ने एक कविता लिखी थी जिसका शीर्षक है- चुप की साज़िश।
रात ऊंघ रही है
किसी ने इंसान की
छाती में सेंध लगायी है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है
चोरों के निशान-
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आंख देखती नहीं,
न चौंकती है
सिर्फ एक कुत्ते की तरह
एक ज़जीर से बंधी
किसी वक्त किसी की
कोई नज्म भौंकती है।
सभी जानते हैं कि अमृता साहिर से किस कदर मोहब्बत करती थीं। पर इमरोज़ के इश्क पर इस बात ने कोई असर नहीं डाला। वो अपनी दुनिया अमृता को जीते रहे, सिर्फ और सिर्फ इश्क करते रहे। तभी तो अमृता के दिल में जगह बना पाए। उन्हें लिखे एक ख़त में अमृता ने लिखा था, इमुवा, अगर कोई इंसान किसी का स्वतंत्रता दिवस हो सकता है तो मेरे स्वतंत्रता दिवस तुम हो…’
प्रेम क्या है, इश्क के कितने रुप हैं, मोहब्बत के जाने कितने फसाने, कितने तराने हैं, जिन्हें सभी अपनी अपनी तरह से गुनगुनाते हैं, पर इमरोज़ का अंदाज़ ए इश्क कुछ अलग है। जब अमृता और इमरोज़ ने साथ रहने का फैसला किया तो अमृता ने उनसे कहा था, एक बार तुम पूरी दुनिया घूम आओ, फिर भी तुम मुझे अगर चुनोगे तो मुझे कोई उज्र नहीं…मैं तुम्हें यहीं इंतजार करती मिलूंगी.’ इसके जवाब में इमरोज ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए और कहा, ‘हो गया अब तो…’ हां, हो गया, यकीन भी हो गया कि दुनिया में कुछ दीवाने ऐसे भी हैं जिनके लिए बस इतना काफी है कि उनका इश्क खिलता रहे, खिलखिलाता रहे, फिर भले पास होकर भी दूर हो।
एक बार इमरोज से किसी ने पूछा कि अमृता साहिर से प्यार करती है फिर भी आप उनसे मोहब्बत कैसे कर लेते हैं इस पर वे जोर से हंसे और बोले, ‘एक बार अमृता ने मुझसे कहा था कि अगर वह साहिर को पा लेतीं, तो मैं उसको नहीं मिलता. तो मैंने उसको जवाब दिया था कि तुम तो मुझे जरूर मिलती चाहे मुझे तुम्हें साहिर के घर से निकाल के लाना पड़ता. जब हम किसी को प्यार करते हैं तो रास्ते की मुश्किल को नहीं गिनते. मुझे मालूम था कि अमृता साहिर को कितना चाहती थीं. लेकिन मुझे यह भी बखूबी मालूम था कि मैं अमृता को कितना चाहता था.
ऐसा नहीं कि इमरोज़ को उनके इस बेपनाह मोहब्बत के बदले कुछ हासिल न हुआ… वो हासिल अमृता के इन शब्दों में मिलता है, ‘साहिर मेरी जिन्दगी के लिए आसमान हैं, और इमरोज मेरे घर की छत.’
अमृता के अहसासों से सजी रचनाएं तो आपने बहुत पढ़ी होंगी, पर आज पढ़िए इमरोज़ के जज्बात उनकी अमृता के लिए-
लोग कह रहे हैं…
लोग कह रहे हैं उसके जाने के बाद
तू उदास और अकेला रह गया होगा
मुझे कभी वक़्त ही नही मिला
ना उदास होने का ना अकेले होने का ..
वह अब भी मिलती है
सुबह बन कर शाम बन कर
और अक्सर नज़मे बन कर
हम कितनी देर एक दूजे को देखते रहे हैं
और मिलकर अपनी अपनी नज़मे ज़िंदगी को सुनाते रहे हैं….
अब बताइए भला, ऐसा इश्क़ कौन करता है, कौन कर पाता है ऐसी मोहब्बत जो इमरोज़ ने अमृता से की। तभी तो इमुवा की अमृता अपनी ज़िंदगी को अपनी शर्तों, अपने शब्दों और अपने संघर्ष के साथ जी पाईं और दे पाईं वो सौगात जिसे लोग कहते हैं साहित्य की दुनिया की अमर कृति।
शिखा सिंह
पत्रकार एवं लेखिका