बिहार में सजी चुनावी बिसात , आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी

कोरोना महामारी से हुई अपार क्षति और उतपन्न भय के बीच सत्तारूढ़ दल बिहार में चुनाव को लेकर काफी तेजी बरत रही है।चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के बयान के बाद अब लगभग यह सपष्ट है कि चुनाव होंगे।राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला हर चुनाव की भाँति इस बार भी अनवरत जारी है और उफान पर है।

15 साल बनाम 15 साल:

नीतीश कुमार (Nitish Kumar) भी समझते हैं कि बीते वर्षों में हुई कई अक्षम्य चूकें उनके विजय रथ को रोक सकती है।इसी कारण से उन्होंने इस प्रकार से चुनावी अभियान की शुरुआत की है।

 

वे तुलनात्मक अंदाज़ में अप्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि ” जिनके घर शीशे के होते हैं वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते”।

उनका कहना है कि जब भी मतदाता मतदान करनें जाएँ ,जरूर इस पर गहरा विचार करें कि नीतीश सरकार के सत्ता में आने से पहले उनके पास क्या था:—-

गढ्डों से भरी सड़कें, बिजली के अभाव में सुनसान एवं वीरान रातें, सिरफिरे-मनचले अपराधियों का बोलबाला(जिसे गुंडाराज भी कहते हैं), सड़कों पर बहन-बेटियों का असुरक्षित महसूस करना, शिक्षा जगत में बदहाली, स्वास्थ्य क्षेत्र में आधारभूत ढाँचों की कमी इत्यादि कई ऐसी खामियाँ वो बताते हैं।उनके आरोप बहुत हद तक सही हैं लेकिन इन्हीं सारी कमियों की वजह से तो जनता ने उन्हें 2005 के चुनाव में अपना नेता चुना था जब एनडीए ने चुनावी नारा दिया था: 15 साल बुरा हाल।सरकार बदलो,बिहार बदलेगा।

 

परन्तु विचारणीय यह है कि 2020 में वोट देने के लिए हम 2005 से पहले की समस्याओं पर क्यों विचार करें और नीतीश कुमार ऐसा करने के लिए क्यों बोल रहे हैं— कहते हैं “जिसका वर्तमान कमजोर होता है वही अतीत की बातें करता है”।शायद ये नीतीश जी भली- भाँति समझते हैं।

 

वहीं दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव के द्वितीय परन्तु कई मामलों में अद्वितीय पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejasvi prasad Yadav) भी नीतीश सरकार की रिपोर्ट कार्ड लेकर मैदान में उतरे हैं।उनका शीर्षक है– कुर्सी के प्यारे,बिहार के हत्यारे।वे कहते हैं कि पलटू चाचा को बिहार से ज्यादा सत्ता से प्रेम है।वे भी कई तरह की समस्याओं को जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं जिनसे आम-जन जूझ रही है।

 

नीतीश सरकार के सामने इस चुनाव में जो मुद्दे सवालों के घेरे में होंगे उनमें से प्रमुख है:

 

1.बेरोजगारी दर का लगातार बढ़ता स्तर जो कि बिहार में राष्ट्रीय औसत से कहीं दुगुना है।

2. भाजपा के साथ कई वर्षों तक साथ रहने के बावजूद भी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिला पाना।ये इस गठबन्धन की अंदरूनी दरार को उजागर करता है।

3. स्वास्थ्य के क्षेत्र में फिसड्डी साबित होना।नेताओं के बयान में भी साफ अंतर झलक रहा है, जहाँ बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे का कहना है लगभग 50% कोरोना के जाँच RT-PCR(Reverse Transmission Polymerise Chain Reaction) पद्धति से हो रहे हैं तो नीतीश कुमार का कहना है कि 10%से भी कम जाँच इस पद्धति के द्वारा हुए हैं।अब किस बयान पर विश्वास किया जाय।यहाँ ज्यादातर जाँच एंटीजेन टेस्ट से ही हो रहे हैं जो कि विश्वसनीय नहीं है और विपक्षी दलों का दावा है कि सरकार टेस्ट्स की बढ़ती संख्या को दिखाने के लिए एंटीजन टेस्ट का सहारा ले रही है जो कि जनहित के खिलाफ है।

4. बाढ़ से त्रस्त जनता: बिहार में बाढ़ आना कोई नई बात नहीं है,लेकिन इसका निराकरण न ढूँढकर उदासीन रवैया अपनाना जनसाधारण को उदास करता है।इस बार भी लगभग प्रदेश के 16 जिलों के 75 लाख लोग बेघर हो गए एवं किसी तरह से सड़क के किनारे जीवन गुजर-बसर करने को विवश हैं।जितने भी धन खर्च किये जाते हैं बाढ़ से उत्पन्न विपदा से निबटने के लिए और जो तटबंध बनाये जाते हैं वे समाधान से अधिक समस्या बनते जा रहे हैं।सरकार को इस पर गहन विचार करना चाहिए और पर्यावरणविदों के द्वारा जारी सुझावों पर अमल करना चाहिए।

5.बढ़ता अपराध भी निश्चित रूप से एक प्रमुख मुद्दा रहेगी इस चुनाव में।

 

ये कुछ मुद्दे आप पाठकों को नज़र रहीं जो मेरी नज़र में प्रमुख रहीं और भी कई अन्य मुद्दे हैं जिनका जिक्र यहाँ नहीं है लेकिन सियासी गलियारों में उसके गूँज की प्रतिध्वनि जरूर सुनाई देगी।

 

बहरहाल सभी दल अब वर्चुअल रैली के माध्यम से अपनी अच्छाइयाँ और दूसरों की बुराईयाँ बताने में जोर-शोर से जुट गए हैं।अब जनार्दन बनी जनता के हाथ में चाभी है कि वह किसे प्रदेश को अगले 5 वर्षों तक सुचारू रूप से चलाने के लिए चुनती है।

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