
(नरेंद्र दामोदरदास मोदी, जो भारत के वजी़रे आज़म हैं – अर्थात प्रधानमंत्राी हैं – उनकी वाकपटुता की तारीफ़ उनके अनुयायी करते हैं और कई अन्य लोग भी इस बात को कहते नज़र आते हैं। फिलवक्त़ इस बहस में जाए बिना कि बात रखने की यह शैली किस हद तक क़ाबिलेतारीफ़ है , हम यही सवाल उठाना चाह रहे हैं कि आख़िर इतनी ज़िम्मेदारी के पद पर बैठे पीएम मोदी ने – जो अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्राी को ‘‘मौन’’ प्रधानमंत्राी कहते थे – आख़िर ख़ुद मीडिया एवं प्रेस से बात करने के मामले में मौन बनाए रखने का रास्ता क्यों चुन लिया है? क्या इस शैली को उनकी ताक़त या कमज़ोरी का प्रतीक कहा जा सकता है?)
इतिहास में ऐसे मौके शायद ही आते हैं जब बेहद कुशलता से गढ़ी गयी कि किसी नेता की छवि अचानक एक मामूली प्रसंग से दरक जाती है और वह अचानक बेहद कमज़ोर दिखने लगता है।
डाॅयशे वेल्ले (Deutsche Welle) – जो जर्मन प्रसारणकर्ता संस्था है – के प्रमुख संपादक के एक अदद टिवट ने कुछ माह पहले यही काम किया। याद होगा कि जनाब मोदी यूरोप की यात्रा पर निकले थे, जब रूस ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी थी (मई 2022) और अपनी यात्रा का उनका पहला पड़ाव जर्मनी के बर्लिन में था।
इस टिवट में महज़ यही ऐलान किया गया था कि जर्मनी के चांसलर स्कोल्ज और पीएम मोदी साझा प्रेस सम्मेलन करेंगे, दोनों के बीच हुए समझौतों का ऐलान किया जाएगा और हमारे मेहमान के आग्रह पर प्रेस सम्मेलन के अंत में ‘‘सवाल नहीं पूछे जाएंगे।’’
जर्मनी ही नहीं पश्चिम के पत्रकारों के लिए प्रेस सम्मेलन के बाद ‘‘सवाल न पूछने का निर्देश’ न केवल अभूतपूर्व था बल्कि अनपेक्षित था।
निस्संदेह में पत्रकार सम्मेलन में किसी भी तरह की बाधा नहीं उत्पन्न हुई, मीडिया के लोगों ने केवल जजमान देश बल्कि मेहमान देश के कर्णधार की इच्छा का सम्मान किया लेकिन इस पूरे प्रसंग ने कहे-अनकहे भारत में प्रेस की आज़ादी की स्थिति को अचानक विश्व मीडिया के सामने बेपर्दा किया। लोगों के लिए यह स्पष्ट था कि एक सौ तीस करोड़ लोगों के मुखिया – जो अपने देश को ‘‘जनतंत्र की मां’’ कहलाता है, वह किस तरह मीडिया से संवाद को एकतरफ़ा खामोश कर सकता है और यह क़दम कितना अधिनायकवादी है। इसने इस बहस को भी नयी हवा मिली कि किस तरह दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र रफ़ता रफ़ता चुनावी निरंकुशतंत्र (electoral autocracy) में तब्दील हो रहा है।
वैसे वे सभी जो भारतीय सियासी मंज़र पर नज़दीकी निगाह रखते हैं, उनके लिए मीडिया से बचने और उससे दूरी बनाने का प्रधानमंत्राी मोदी के निर्णय में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि विगत साढ़े आठ सालों से – जबसे मोदी प्रधानमंत्राी बने हैं – यही रवायत चल पड़ी है।
सभी उस प्रसंग से भी वाकिफ़ हैं जब वर्ष 2019 में भाजपा के मुख्यालय पर हुई प्रेस वार्ता में पहली दफ़ा मोदी दिखे थे और उन्होंने कुछ बात भी की थी – जिसे सरकार के क़रीबी चैनलों ने बाक़ायदा ‘ऐतिहासिक अवसर’ और मास्टरस्ट्रोक घोषित किया था। जिसमें उन्होंने उन्हें पूछे जाने वाले हर प्रश्न के जवाब के लिए अमित शाह की तरफ़ इशारा किया था, जो उस वक़्त पार्टी के अध्यक्ष थे। कुल मिला कर यह ऐसा प्रसंग हुआ कि भाजपा की काफ़ी भद्द पीटी थी, जहां अपनी वाकपटुता के लिए काफ़ी ताली बटोरने वाले मोदी ने मौन व्रत धारण करना मुनासिब समझा था।
इस प्रसंग से उपजी झेंप मिटाने के लिए फिर पार्टी की तरफ़ से यह ऐलान किया गया था कि वह प्रेस सम्मेलन पार्टी अध्यक्ष का ही था, जहां प्रधानमंत्री पहुंचे थे। ग़ौरतलब है कि कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनकी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस पर मोदी को ‘बधाई दी थी।’’ और पत्रकारों के सवालों का जवाब न देने के रुख पर चुटकी लेते हुए कहा था ‘‘आप प्रेस सम्मेलन में आते रहेंगे तो भविष्य में अमित शाह आप को बोलने भी दे देंगे।’’
इस संदर्भ में एक अग्रणी मीडिया प्रतिष्ठान की तरफ़ से प्रधानमंत्राी कार्यालय के पास सूचना अधिकार के तहत यह आवेदन भी किया गया कि यह पता चल सके कि प्रधानमंत्राी मोदी ने कितने साक्षात्कार दिए हैं और कितनी प्रेस कॉन्फ्रेंस की है, जिसे लेकर उसे बेहद अस्पष्ट सा जवाब मिला जिसका लब्बोलुआब यही था कि चूंकि मीडिया के साथ प्रधानमंत्राी का संवाद पूरी तरह से सुनियोजित भी होता है और अनियोजित भी होता है, जिसके चलते उसका रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।
ग़ौरतलब है मीडिया से खुला संवाद से बचने या प्रेस सम्मेलन में भी प्रश्नों को पूछने पर पाबंदी रखने का तरीक़ा एक अधिनायकवादी रूझान को दर्शाता है, जिसके चलते न केवल भारत में बल्कि बाहर भी लोग चिंतित रहते हैं ; भारत में जनतंत्र के ढलान पर जाने ( Democratic Backsliding ) की पृष्ठभूमि में उसकी चर्चा होती है, (https://democracyjournal.org/) इसके बरअक्स ऐसे पत्रकार तथा मीडिया कर्मी भी हैं, जो सत्ताधारी पार्टी के क़रीबी हैं, उन्हें लगता है कि ऐसी अंतक्रिया न चलाना, ऐसे संवाद को बढ़ावा न देना यह किसी क़िस्म की चिंता की बात नहीं है और इस तरीक़े पर उनकी राय बिल्कुल अलग दिखती है। उनकी तरफ़ से यह कहा जा रहा है कि ‘सबसे महत्वपूर्ण है कि लोग आप की बात सुन रहे हैं’ और चुने हुए नेताओं द्वारा प्रेस सम्मेलनों का आयोजन करने से ‘‘जनतंत्र की प्रक्रिया को कोई मदद नहीं मिलती है’ बल्कि ऐसे संवादों का आयोजन न करने को ‘संप्रेषण का नया प्रतिमान’ ‘ कहा जा सकता है।
अगर बारीकी से छानबीन करने की कोशिश करें तब यह पता भी चल सकता है कि प्रधानमंत्राी के पद पर आसीन होने के बाद मीडिया से सीधे बात करने को- जहां पत्रकार उनसे सीधे सवाल कर सकें और वह भी जवाब दें – लेकर उनका जो रवैया रहा है, उसकी जड़ें शायद प्रधानमंत्राी पद के पहले के मुख्यमंत्राी पद काल के अपने अनुभव में हो सकती हैं, जहां उन्होंने शायद यही अनुभव किया कि ऐसी बातचीत में उनके लिए मुश्किलें हो सकती हैं। प्रख्यात पत्रकार करण थापर के साथ उनके द्वारा बीच में छोड़ दिया गया साक्षात्कार शायद इसी बात की ताईद करता दिखता था। (https://thewire.in/books/) मालूम हो इस साक्षात्कार में 2002 के दंगों को लेकर पत्रकार थापर द्वारा पूछे गए सवालों को लेकर मोदी असहज हो गए थे और प्रेस सम्मेलन वहीं ख़त्म हो गया था।
दरअसल स्वतंत्र मीडिया की ताक़त से मोदी पहले से ही वाकिफ़ थे जिसका परिणाम यही हुआ था कि वर्ष 2002 में उनके मुख्यमंत्री पद काल के दौरान गुजरात में जो ज़बरदस्त सांप्रदायिक जनसंहार हुआ था – जिसे लेकर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी कार्यशैली की सीमाओं की चर्चा की थी और उन्हें ‘राजधर्म’ निभाने की सलाह दी थी – उन्हें लेकर उन पर लगे अकर्मण्यता या कथित संलिप्तता के आरोपों से वह कभी पूरी तह से उबर नहीं पाए थे। सभी को याद होगा कि गुजरात के जनसंहार का ही वह ‘दाग’ था कि लगभग एक दशक से भी अधिक समय तक उन्हें न ब्रिटेन जाने का वीज़ा मिला और न ही अमेरिका जाने की अनुमति मिली। यह अनुमति तभी मिल सकी जब वह प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे।
ग़ौरतलब है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप की तारीफ़ के पुल बांधने के बावजूद, यहां तक फरवरी 2020 में अहमदाबाद में उनके स्वागत में ‘नमस्ते टंप’ जैसा भव्य कार्यक्रम आयोजित करने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप की मीडिया रणनीति का अनुगमन करना तय नहीं किया, जिसका महत्वपूर्ण पक्ष था कि व्हाइट हाउस में तथा बाकी स्थानों पर आयोजित प्रेस सम्मेलनों में पत्रकारों के सवाल जवाब से कभी कभी न बचने का उनका प्रयास। मीडिया के प्रति प्रचंड तिरस्कार की भावना के बावजूद, यहां तक कि उसके द्वारा प्रस्तुत समाचारों को ‘फेक न्यूज’ कहने के बावजूद राष्ट्रपति टंप ने कभी भी प्रेस सम्मेलनों से बचने का, पत्रकारों के सवालों के जवाब देने से मना करने का कभी प्रयास नहीं किया। कई बार ऐसे अवसर भी आए जब पत्रकार समूहों ने या स्वतंत्र पत्रकारों ने कोविड महामारी को लेकर उनके रूख या मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं या राष्ट्रपति की कथित वित्तीय अपारदर्शिता को एजेंडा पर लाया, लेकिन इसके बावजूद पत्रकारों के सवालों से वह कभी बचे नहीं।
शायद यह कहना मुनासिब होगा कि अपने मित्र चैनलों तक अपनी बात सीमित रखने या चुनिंदा पत्रकारों के साथ अपनी बातचीत सीमित रखने, यहां तक कि पत्रकारों के सीधे सवालों के प्रति बिल्कुल मौन बरतने आदि को अलग अलग देखना ठीक नहीं है, इसे हम एक साथ जोड़ कर या उनकी एक नयी मीडिया रणनीति के तौर पर देखना चाहिए।
हम देख सकते हैं कि 2014 में सत्ता हासिल करने के बाद मोदी का ज़ोर अपने संदेशों को टिवट, मन की बात जैसे रेडियो कार्यक्रमों या क़रीबी पत्रकारों जो दोस्ताना चैनलों में सक्रिय थे उनके साथ पहले से तयशुदा प्रश्नों पर साक्षात्कारों तक (scripted interviews) मुख्यतः सीमित हो गया। उनकी इस रणनीति में ‘टेक्नोलॉजी में आ रहे संरचनागत बदलावों’, ‘सोशल मीडिया के इस्तेमाल में तेज़ी से बढ़ोतरी’ आदि का तथा ‘मीडिया मालिकान में तेज़ी से आए बदलावों’ ने ज़बरदस्त मदद पहुंचायी इन बदलावों में अपने संदेश को दूर तक तथा तमाम लोगों तक पहुंचाने, ‘अपने आलोचकों को निशाना बनाने’, ‘जनमत तैयार करने’ तथा ‘वैकल्पिक नज़रिया रखने वाले लोगों, समूहों पर लांछन लगाना’ बेहद आसान हो गया।
यह इस मामले में भी बहुत स्मार्ट रणनीति साबित हुई जिसने उनकी ऐसी छवि बनाने में मदद मिली कि वह प्रभावी कम्युनिकेटर हैं जबकि वह एक तरह से स्वगत वक्तव्यों का सिलसिला जारी रखे थे और एक तरह से ‘तमाम मुद्दों को प्रभावी तथा सचेत ढंग से खामोश कर रहे थे।’ इस संशोधित मीडिया रणनीति को हम एक ऐसे समग्र पैटर्न में अवस्थित कर सकते हैं जहां यह कोशिश निरंतर जारी है जहां कार्यपालिका एक तरह से बेहद दूर तथा आम जनता से बिल्कुल अलग मालूम पड़े।
केंद्र में मोदी के आगमन ने मीडिया एवं सरकार की अंतर्किंया में भी तमाम नए अनौपचारिक नियमों की शुरूआत हुई है।
बीत गया वह दौर जब पत्रकार एवं अन्य मीडिया कर्मी आसानी से नौकरशाहों यहां तक मंत्रियों से भी अनौपचारिक बातचीत के लिए मिलते थे। अब न केवल पत्रकारों एवं अन्य मीडिया कर्मियों पर सरकारी दफ़्तरों में प्रवेश को लेकर तमाम बंदिशें लगी हैं, वहीं नौकरशाहों एवं मंत्रियों को भी निर्देश मिले हैं कि वह अधिक न बोलें और उन्हें पूछे जाने वाले प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए औपचारिक स्रोतों की तरफ़ पूछने वाले का ध्यान आकर्षित करें।
वह परंपरा भी अब इतिहास हो गयी जब वज़ीरे आज़म अपनी विदेश यात्रा पर अपने साथ ही पत्रकारों, संपादकों के एक दल को ले जाते थे, जिसे प्रधानमंत्राी के साथ औपचारिक अनौपचारिक वार्तालाप का मौका मिलता था। ऐसे साक्षात्कार बाद में प्रकाशित भी होते थे।
अब आलम दरअसल यहां तक पहुंचा है कि पत्रकारों के लिए सत्ताधारी पार्टी के दफ़्तर में प्रवेश पाना और वहां पर पार्टीजनों से बात करना भी मुश्किल हो गया है, पहले जो बात आसानी से संभव होती थी।
निस्संदेह यह नयी मीडिया रणनीति, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का व्यापक विस्तार और समाज में जारी वास्तविक बहसों और चर्चाओं को एक एकांगी दिशा में मोड़ देने में वर्चस्वशाली तबक़ों को मिली सफलता आदि का साझा असर यही हुआ है कि समूची कार्यपालिका – जिसके हाथों में राज्य की तमाम संस्थाओं का न केवल नियंत्रण है बल्कि ऐसी संस्थाओं को विपक्षी दलों एवं आवाज़ों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने में विगत कुछ वर्षों में ज़बरदस्त तेज़ी आयी है – तक लोगों की पहुंच अधिकाधिक मुश्किल होती जा रही है। कुल मिला कर आलम यह है कि तमाम आर्थिक, सामाजिक चुनौतियों के बावजूद सत्ताधारी हुकूमत के लिए बीते साढ़े आठ सालों से कोई बड़ी चुनौती नहीं मिल सकी है।
इस चतुर्दिक वर्चस्व को चुनौती देना एक अनुल्लंघनीय कार्यभार प्रतीत हो सकता है लेकिन कोई इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि उम्मीद की नयी किरणें भी अपनी झलक दिखा रही हैं। हमारे समक्ष अब ऐसी वैकल्पिक आवाज़ें मौजूद हैं जो उन्हें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल कर अपनी आवाज़ दूर तक पहुंचा रही हैं, जनता की आवाज़ को खामोश करने के सरकारी प्रयासों के बरअक्स उन मुद्दों को उठा रही है, लोगों तक पहुंचा रही है। मुख्यधारा की मीडिया के तमाम घटाटोप के बावजूद हम ऐसे प्रयासों से भी रूबरू हैं कि वहां पर ऐसे पत्रकार मौजूद हैं जो गोदी मीडिया के ख़िलाफ़, युवा पीढ़ी को नफ़रत के सिपाही बनाने की उनकी रणनीति के ख़िलाफ़, साज़िशों को बेपर्दा कर रहे हैं।
तीन ‘जनविरोधी क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों का व्यापक जनांदोलन – जो हाल के समय का सबसे बड़ा जनांदोलन था – जिसके चलते सरकार को उन क़ानूनों को वापस लेना पड़ा, उसने तो अपने ख़ुद के ‘समानांतर मीडिया’ का भी निर्माण किया था, जिसने एक तरह से दरबारी पूंजीपतियों के वर्चस्ववाले मीडिया द्वारा आंदोलन को लेकर बनायी ग़लत छवि तोड़ने का लगातार काम किया।
इस पृष्ठभूमि में हम ‘भारत जोड़ो यात्रा’ जैसी अनोखी पहल को देख सकते हैं – जिसकी पहल भले ही कांग्रेस पार्टी ने की हो, लेकिन आधिकारिक तौर पर वह कांग्रेस पार्टी तक सीमित नहीं है और उसे ‘तमाम जनांदोलनों और संगठनों, जन बुद्धिजीवियों और अग्रणी नागरिकों का समर्थन हासिल है’ ; और अब एक माह पूरी कर चुकी इस यात्रा ने लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए एक नयी ज़मीन तोड़ी है। किसी विश्लेषक ने बाक़ायदा हिसाब लगा कर बताया था कि पांच माह के अंतराल में कितने करोड़ भारतीयों तक न केवल इस यात्रा का संदेश पहुंचा होगा बल्कि इनमें से कितने लोग किसी न किसी रूप मे इस यात्रा को क़रीब से देखें होंगे या शामिल होंगे।
अब विपक्ष के आलोचक भले माने न माने इस अनोखी पहल के केंद्र में राहुल गांधी की शख्सियत दिखती है, लोगों तक, युवाओं-युवतियों तक यहां तक बच्चों तक उनकी सीधी पहुंच और उनसे संवाद साधने में उन्हें मिली महारत आदि ने उनकी असली छवि मुखर होकर सामने आयी है। विगत आठ सालों में उनकी छवि बिगाड़ने में हिंदुत्व कट्टरपंथियों ने ज़बदस्त मेहनत की है, करोड़ों रूपये उन्हें ‘पप्पू’ साबित करने में लगाया है, लेकिन यात्रा के जरिए लोगों से सीधी बातचीत ने उनकी इस गढ़ी हुई छवि की असलियत उजागर हुई है।
ग़ौरतलब है कि प्रेस सम्मेलन में पत्रकारों के हर सवाल का जवाब देने की उनकी तत्परता के बरअक्स हम महान वाकपटु कहलाने वाले जनाब मोदी को देख सकते हैं, जो अपने सामने पूछे गए सवालों का ज़िम्मा कभी अमित शाह को देते हैं तो कभी विदेशी ज़मीन पर अपने मेहमान देश को यह कहने के लिए मजबूर करते हैं कि वह प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवालों का जवाब नहीं देंगे। और एक तरह से न केवल अपने जजमान देश के कर्णधार को असहज स्थिति में डाल देते हैं और अपने देश की बदनामी भी करते हैं।
यह अब हम सभी के सामने है कि प्रेस सम्मेलन में जब टेलीप्रॉम्टर अचानक बंद होता है तो अपनी वाकपटुता पर मुग्ध रहने वाले मोदी के किस तरह किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे रह जाते हैं जबकि मूसलाधार बरसते पानी के बीच हज़ारों लोगों के बीच भाषण देती राहुल की छवि लोगों के बीच वायरल हो जाती है।