क्या अपने ‘हनुमान’ जसवंत के नियत पर अटल बिहारी वाजपेई को नहीं था भरोसा!

जुलाई 2001 में आगरा शिखर वार्ता के लिए अटल बिहारी वाजपेई के बुलावे पर परवेज मुशर्रफ (Pervez Musharraf)भारत आए थे। वार्ता शुरू हुई। पहले दिन बातचीत केवल प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई (Atal Bihari vajpayee) और परवेज मुशर्रफ के बीच हुई ।जब यह वार्ता चल रही थी उस समय जसवंत सिंह(Jaswant Singh) भारत सरकार (Indian Gvernment) में विदेश मंत्री थे । जसवंत सिंह ने वार्ता के दूसरे दिन एक प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि इस वार्ता में दोनों मुल्कों के विदेश मंत्रियों (Foreign Minister) को भी शामिल होना चाहिए। प्रस्ताव स्वीकार होने के बाद भारत के तरफ से जसवंत सिंह और पाकिस्तान (Pakistan) के विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार ने भी वार्ता में भाग लिया ।

वार्ता के दौरान एक मसौदा (Agreement) तैयार हुआ जिसमें दोनों देशों के प्रधानों के हस्ताक्षर थे। लेकिन, जसवंत (Jaswant Singh) इस मसौदे से पूरी तरीके से राजी नहीं थे। उन्होंने पाकिस्तान के विदेश मंत्री के साथ सहमति बनाकर उस मसौदे में कुछ बदलाव कर दिया।

बदला हुआ मसौदा लेकर जब जसवंत(Jaswant Singh) अटल बिहारी (Atal Bihari vajpayee) के कमरे में पहुंचे तो वहां देश के गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी और वित मंत्री यशवंत सिन्हा(Yashwant Sinha) भी मौजूद थे। जब लालकृष्ण आडवाणी ने वह ड्राफ्ट देखा तो उन्होंने कहा कि इसमें तो कहीं भी सीमा पार के द्वारा प्रायोजित आतंकवाद का जिक्र ही नहीं है । जब यशवंत सिन्हा ने उस मसौदे को देखा तो उन्होंने कहा ” इस समझौते में 1972 में हुए शिमला समझौते का कहीं नाम ही नहीं है । यह समझौता ही तो दोनों देशों के बीच के तनाव को खत्म करने का एक जरिया है क्योंकि शिमला समझौते में पाकिस्तान ने माना था कि दोनों देशों के बीच चल रहे तल्ख रिश्ते आपसी हैं। इन्हें आपस में ही सुलझा लिया जाएगा । दोनों देशों के बीच के मामले में तीसरे किसी भी देश की मध्यस्था जरूरी नहीं है। “

जसवंत ये सब सुनकर बहुत नाराज हुए। उनकी नाराजगी तब और भी बढ़ गई जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई(Atal Bihari vajpayee) ने कह दिया कि मैं इन दोनों लोगों के सुझावों से सहमत हूं। इसके बाद जसवंत ने अटल बिहारी से कहा कि “मैंने यह ड्राफ्ट भारत के विदेश मंत्री की हैसियत से तैयार किया है। अगर इस ड्राफ्ट में आपको भरोसा नहीं है तो इसका मतलब आप का भरोसा मेरी नियत में भी नहीं है।” इतना कहकर वे वहां से चल दिए।

इस प्रकरण के बाद शिखर वार्ता वहीं खत्म हो गई। हालांकि बाद में परवेज मुशर्रफ ने जसवंत सिंह द्वारा हस्ताक्षरित उस मसौदे को दुनिया को दिखाया और बताया कि हम तो एक ऐतिहासिक समझौते के लिए तैयार थे लेकिन उस देश के एक शीर्ष नेता को बात मंजूर नहीं थी। वह बार-बार लाल कृष्ण आडवाणी (Lal Krishna Advani)पर तंज कसते थे।

( इस पूरे घटनाक्रम का संदर्भ यशवंत सिन्हा की किताब ‘रेलेंटलेस ‘ से लिया गया है)

हालांकि जसवंत सिंह के ऊपर अटल बिहारी को बहुत भरोसा था । उन्हें अटल बिहारी का ‘ हनुमान ‘ कहा जाता था। माना जाता है कि जसवंत उस दौर में अकेले ही ऐसे व्यक्ति थे जिनमें विदेश मंत्रालय संभालने की काबिलियत थी। परमाणु विस्फोट के बाद जसवंत को ही यह जिम्मदारी दी गई थी कि भारत की स्थिति विश्व स्तर पर अलग थलग ना पड़ने पाए ।

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