बग्वाल मेला : जहां पत्थरों से खेला जाता है आस्था का युद्ध

किसी परंपरा को आस्था और अंधविश्वास में बांटने के बीच एक बारीक रेखा होती है, हमारे देश में ऐसे अनेक परंपराएं हैं जिन्हें किसी क्षेत्र विशेष के लोग गहन आस्था से मानते हैं तो कहीं दूर उसके बारे में पढ़ रहे या उसके बारे में सुन रहे लोग उसे सीधे ही अंधविश्वास कह देते हैं। चाहे वह झाड़ फूंक से बीमारियों का इलाज करना हो या सच झूठ का फैसला करने के लिए किसी को अंगारों पर चलवा देना।

एक ऐसी परंपरा उत्तराखंड के चंपावत जिले के देवीधुरा में हर साल रक्षाबंधन के दिन मां बाराही धाम के प्रांगण में होने वाले मेले से जुड़ी है। इस मेले को “बग्वाल मेला” नाम से भी जाना जाता है और इस मेले की सबसे अनोखी बात जो इसे आस्था और अंधविश्वास के कठघरे में खड़ा करती है वह है इस ‘मेले में खेला जाने वाला पाषाण युद्ध’ ठीक उसी तरह जिस तरह स्पेन के एक फेस्टिवल में एक दूसरे को लोग टमाटर से मारते हैं, उसी तरह बग्वाल के दौरान लोग पत्थरों से एक खेमे के लोग दूसरे खेमे के लोगों को मारते हैं।

बग्वाल के इतिहास को लेकर इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं, पर सबसे प्रचलित और मान्यताओं में यही मत है कि मां बाराही को प्रसन्न करने के लिए चारों खामों से हर साल एक व्यक्ति की बलि दी जाती थी, (यहां चारों खामों में लमगड़िया, वालिक, चम्याल और गहढ़वाल’ खाम हैं) एक बार बलि की बारी चम्याल खाम की एक बुढ़िया के परिवार की थी, जिसमें बुढ़िया और उसका एक पोता ही थे। बुढ़िया ने मां बाराही से प्रार्थना की और बलि टालने की गुहार लगाई, इसके बाद मां बाराही ने बुढ़िया के ध्यान में आकर उसे कहा कि यदि चारों खामों के लोग पत्थर मार युद्ध खेलें और एक व्यक्ति के बराबर खून गिरने तक खेलें तो बलि की जरूरत नहीं होगी। उसके बाद से हर वर्ष रक्षाबंधन के दिन यानि श्रावणी पूर्णिमा के दिन देवीधुरा स्थित मां बाराही के धाम के प्रांगण खोलीखांड में बग्वाल खेली जाती है।

यह बग्वाल पूर्णतः राजपूत समुदाय से जुड़ी है, कुछ इतिहासकार इसे कत्यूरी वंश से भी जोड़ कर देखते हैं, तो कई इतिहासकार कहते हैं कि चंदवंश तक नरबलि की प्रथा थी और उसके बाद बग्वाल शुरू हुई।

बग्वाल खेलने वाले चारों खाम के लोग रक्षाबंधन के कुछ दिन पहले से ही बांस से बने ढाल रूपी फर्रे जिन्हें छंतोली कहा जाता है उन्हें ठीक कर लेते हैं और उन्हें फूलों से सजा लेते हैं। और एक दिन पहले से बग्वाल खेलने वाले लोग बिल्कुल सात्विक भोजन करते हैं। श्रावणी पूर्णिमा के दिन सुबह नए वस्त्रों में चारों खामों के रणबांकुरे अलग-अलग रंगों की पगड़ी सर पर बांध कर, मां बाराही मंदिर की ओर माता के जयघोष करते हुए निकलते हैं साथ में ढोल नगाड़े की आवाज आती है।

वहां पहुंचकर चारों खामों के मुखिया देवी पूजन करते हैं और शुभ मुहूर्त के साथ-साथ साथ ही पुजारी के निर्देश के बाद बग्वाल शुरू हो जाती। है जहां पर चम्याल खाम और गहड़वाल खाम एक तरफ रहते हैं और लमगड़िया खाम व वालिक खाम एक तरफ रहते हैं। बग्वाल की खास बात है कि इसमें निशाना लगाकर पत्थर मारना निषेध है, और मान्यता है कि बग्वाल की वजह से किसी श्रद्धालु की कभी मौत नहीं हुई और ना ही कोई गंभीर रूप से जख्मी हुआ।

जब पुजारी को लगता है कि एक व्यक्ति के बराबर खून बह चुका है तब पुजारी बग्वाल की समाप्ति की घोषणा शंखनाद से कर देता है। बग्वाल समाप्त होने के बाद ही बग्वाल खेलने वाले अन्न जल ग्रहण करते हैं, और एक दूसरे खाम वालों से भी मेल मिलाप करते हैं।

कुछ साल पहले उत्तराखंड हाईकोर्ट ने बग्वाल पत्थरों के बजाय फलों और फूलों से खेलने का आदेश दिया था, पर सदियों से चल रही परंपरा इतनी जल्दी पूरी तरह नहीं बदली जाती। भले बग्वाल की शुरुआत फलों-फूलो से होती है पर कुछ ही देर में पत्थर भी चलने लगते हैं। कुमाऊं क्षेत्र में देवीधुरा का बग्वाल मेला काफी प्रचलित है और आसपास के कई जिलों के लोग इसे देखने आते हैं औसतन पचास हजार लोग हर वर्ष इसे देखने आते हैं।

– जुगल

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