वक्ता और कवि के तौर पर अटल बिहारी वाजपेई, जाने एक झलक

16 अगस्त, रविवार, आज पुण्यतिथि है प्रखर वक्ता कवि भारत रत्न और असामान्य व्यक्तित्व वाले अटल जी की। अटल जी को एक राजनेता के अलावा सबसे अधिक हम एक कवि के रूप में देखते हैं। अटल जी तीन बार देश की कमान प्रधानमंत्री के तौर पर संभाले, पर उन्हें सदैव एक विपक्षी नेता के लिए जाना गया।

उनकी राजनीति का अधिकांश समय विपक्ष में बैठ कर बीता। उनके भाषणों को सुनने के लिए लोगों की भीड़ देखते बनती थी। वास्तव में अटल जी एक ऐसे नेता थे,जिनकी तारीफ उनके विरोधी भी करते थे। फिर चाहे वह नेहरू हो, इंदिरा या राजीव। वाजपेई नेहरू सरकार में भी मंत्री रहे थे।

वक्ता के तौर पर

अटल जी की वाकपटुता देश की नई दुनिया में भी मशहूर थी। भाषणों में अपने मनोवैज्ञानिक तरीकों से वह अपनी अद्भुत चमक बिखेर देते थे। हां साहित्यिक थे तो जाहिर है कि शब्दों का चयन लाजवाब होगा। हिंदी पर अच्छी पकड़ भी थी।

कितने ही मुद्दों को हास्यास्पद व्यंगों से हंसी में उड़ा देते। वही कितने मुश्किल सवालों का जवाब आसानी से दें देते। अटल जी का तेवर भी देखते बनता है। वह अपनी बात करते तो हाथों को जिस तरह से लहराते इससे उनकी बात स्पष्ट हो जाती। अपने भाषण के दौरान ज्यादातर हमने उन्हें हाथ और सिर को झटकते देखा है। यह सांकेतिक तौर पर श्रोता को वक्ता से जोड़ देता है। हम यह देखते भी हैं कि शाब्दिक से अधिक दैहिक संवाद असरदार होता है।

सुनने वालों के लिए वाजपेई के अनोखे व्यंग भी कमाल लगते। उत्तर प्रदेश में जनसंघ और कांग्रेस की रैली एक साथ एक ही मैदान में हुई। हालांकि कांग्रेस की रैली 4:00 बजे होनी थी लेकिन गोविंद बल्लभ पंत 7:00 बजे जनसंघ की रैली के समय पहुंचे। वाजपेई ने उनका मान रख उन्हें पहले बोलने दिया।

सवा खत्म होने पर लोग जाने लगे तो बाजपेई ने कहा अभी एक पंडे की बात सुनी है अब दूसरे की भी सुन लीजिए।काशी में गंगा घाट पर जैसे पंडे होते हैं। वैसे ही चुनावी गंगा नहाने- नहलाने के लिए भी पांडे अपनी बात सुनाते हैं। जितने पंडे उतने ही डंडे और फिर वैसे ही झंडे। यह सुन जाती हुई भीड़ वापस बैठ गई।

कवि के तौर पर अटल

अटल जी की वह प्रसिद्ध पंक्ति हम सभी को याद होगी की ‘एक कवि जो राजनीति में चला गया’। अपनी प्रसिद्ध कविता ‘गीत नया गाता हूं’ से वह अपने विचार लोगों के बीच रखते।

टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी?                             अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,                         हार नहीं मानूंगा                                                        रार नहीं ठानूंगा                                                         काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं,                        गीत नया गाता हूं। 

वही अपनी प्रसिद्ध कविता ‘दूध में दरार पड़ गई’ से सामाजिक तकलीफों पर अपने भाव रखें                       अपनी ही छाया से बैर,                                               गले लगने लगे हैं गैर,                                                 खुदकुशी का रास्ता,                                                   तुम्हें वतन का वास्ता                ‌                                बात बनाए बिगड़ गई,                                                 दूध में दरार पड़ गई।

हर कविताओं में उनके अलग-अलग संदेश रहे। उन्होंने भारत के गरिमामई इतिहास को सुनहरे शब्द दिए।             विश्व का इतिहास पूछता, रोम कहां, यूनान कहां है?

इस तरह की कुल 54 कविताएं उन्होंने लिखी। करगिल युद्ध के बाद रणचंडी की कविता भी खूब प्रसिद्ध हुई।  उनके समर्थक उनको राष्ट्रवादी कवि के रूप में मानते हैं।

 

 

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